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bharat aur dalit

भारत और दलित

नमस्कार दोस्तो।
मैं कोई राजनेता नही या फिर कोई ‘बाबा’ नही , और मैं youtube का star चैनल वाला भी नही जो सिर्फ अपना एजेंडा चलाने आते है, मैं सिर्फ एक युवा हूं जो सिर्फ देश के लिए कुछ करने की इच्छा रखता है,

आज हम बात करेंगे देश के दलितों के साथ हो रहे बार बार वो घटनाओं के बारे मे जो बार बार देश को हिला कर रख दे रहे है , हाथरस किसको याद नही है लेकिन यह मतभेद आया कहा से , हम चलेगे 1850 में जब ब्रिटिश राज में इन्हें दबे कुचले वर्ग के नाम से बुलाती थी, अगर हम 2 करोड़ दलित ईसाई और 10 करोड़ दलित मुसलमान को भी जोड़ लें। तो भारत में दलित की कुल आबादी करीब 32 करोड़ बैठती है। ये भारत की कुल आबादी का एक चौथाई है, आधुनिक पूंजीवाद और साम्राज्यवाद शासक ने भी जातिय व्यस्तता पर तगड़े हमले किए लेकिन फिर भी , दलितों को इसकी बुनयादी ईट की तरह हमेशा बचाकर, हिफाज़त से रखा गया , ताकि जाति व्यस्तता ज़िंदा रहे , फलती-फूलती रहे ।

आईना

दलितों से भेदभाव एक तरह का आइना ही है जो भारत की सामाजिक परिस्थितियों के बारे में खुल के बता रहे है। ऐसा नही है की ये रीति रिवाज हर जगह चलते है लेकिन इनका गांव देहातो में होना अनिवार्य जैसा हो गया है। बहुत मुश्किल से हम एक होके आज़ाद हुए थे , लेकिन राजनीति की कढ़ाई पर सबको अपनी सब्ज़ी बनानी थी , फिर से वोही दौर शुरू हुआ जिसमें हम जातियों आधार पर अलग रहने लगे , और जातियों के आधार पर वोट बैंक खुलने लगे। लेकिन बात यहाँ खत्म नही हुए वोट बैंक और बढ़ाने के लिए “कोटे” के प्रयोग हुआ। सीट बंटवारे का काम शुरू हुआ फिर उसके बाद ये माहौल ठीक होने के बजाय और खराब हो गया। 


पिछले भाग में हमने बात करी थी राजनीति में दलितों का इस्तेमाल किस तरह से शुरू हुआ था।

“कोटे” के बटवारे के बाद , दलित की रक्षा कुछ लोग आगे आये जो यह मानते थे और बोलते थे कि हम दलितों का उद्धार कर सकते है , लेकिन सबको पता था ये सिर्फ वोटों की राजनीति में अपनी रोटी बनाने का काम करने आये है उससे अधिक कुछ नही ।

देहात में दलित के हाल
हम बात करते है हाथरस की जहां बहुचर्चित रेप कांड हुआ है। जहाँ पर दलित के हाथ का पानी पीना भी पाप माना जाता है, वहाँ ठाकुरो के लड़कों ने रेप की घटना को अंजाम दिया (CBI जाँच कर रही है),इनके दलित समुदायों से इतर अपने अलग हित हो गए हैं. इनकी तरक़्क़ी से समाज के दूसरे तबक़ों को जो शिकायत है, उसका निशाना आम तौर पर वो दलित बनते हैं, जो गांवों में रहते हैं, और, तरक़्क़ी की पायदान में नीचे ही रह गए हैं.

बहुजन समाज वादी पार्टी

सुश्री मायावती
उदय हुआ मायावती का जिनका जन्म हुआ था 15 जनवरी 1956 में , जिन्होंने काशीराम की बनाई हुई पार्टी (बहुजन समाजवादी पार्टी ) की सीढ़ी बहुत उम्दा तरीके से चढ़ी और 3 जून 1995 को CM की कुर्सी संभाली और राजनीति उटल पुथल से 18 अक्टूबर 1995 को कुर्सी छोड़ी और 2 साल बाद 21 मार्च 1997 को फिर से आने की कोशिश की लेकिन फिर से 21 सिंतबर 1997 को कुर्सी छोड़नी पड़ी । लेकिन बहुजन पार्टी का अंत यहाँ नही था , फिर से 2002 में आने की कोशिश में 1 साल ही पार्टी टिक पाई , फिर वो समय आया जब इस पार्टी के नीव रखने वाले श्री कासीराम जी की मुत्यु हो गयी और पार्टी हिल गयी लेकिन मायावती जी ने पार्टी को संभाला और 2007 से 2012 तक उत्तरप्रदेश की कुर्सी पर रही।

रावण और भीम आर्मी

चंद्र शेखर रावण
रावण एक नाम जो सिर्फ मौके के तलाश में है कब वो दलितों का चेहरा बन पाए और मायावती की जगह ले पाए अपनी अलग पार्टी खड़ी करके , वो सिर्फ एक चेहरा मात्र है , माना जाता है सारा खेल सतीश कुमार का है जो सिर्फ रावण को आगे करके एक मजबूत जगह लेने की ख्वाहिश में है। चुनाव की शुरुआत 2019 से शुरू थी लेकिन भीम आर्मी ने अपना समर्थन वापस ले लिया । 2020 के चुनाव में पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी के समर्थन में आ रहे है। लेकिन उनके भाषण काफी हद तक हिन्दू को बड़काने वाले होते है । अगर वो सच में दलितों की चिंता करते है तो उनको तोड़ के नही जोड़ कर सत्ता में आना चाइये

इनके दलित समुदायों से इतर अपने अलग हित हो गए हैं. इनकी तरक़्क़ी से समाज के दूसरे तबक़ों को जो शिकायत है, उसका निशाना आम तौर पर वो दलित बनते हैं, जो गांवों में रहते हैं, और, तरक़्क़ी की पायदान में नीचे ही रह गए हैं.


दलितों के मौजूदा हालात से एकदम साफ़ है कि संवैधानिक उपाय, दलितों की दशा सुधारने में उतने असरदार नहीं साबित हुए हैं, जितनी उम्मीद थी. यहां तक कि छुआछूत को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद ये आज तक क़ायम है.


आरक्षण का मक़सद दलितों की भलाई और उनकी तरक़्क़ी था, लेकिन इसने गिने-चुने लोगों को फ़ायदा पहुंचाया है. इसकी वजह से ज़ाति-व्यवस्था के समर्थक इस ज़ातीय बंटवारे को बनाए रखने में कामयाब रहे हैं, जो कि दलित हितों के लिए नुक़सानदेह है.

चुनाव के ‘फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट’ सिस्टम की वजह से और सत्ताधारी वर्ग की साज़िशों का नतीजा ये है कि आज दलित उधार की राजनीति में ही जुटे हुए हैं. दलितों के शिक्षित वर्ग को अपने समुदाय की मुश्किलों की फ़िक्र करनी चाहिए थी, लेकिन वो भी सिर्फ़ ज़ातीय पहचान को बढ़ावा देने और उसे बनाए रखने के लिए ही फ़िक्रमंद दिखते हैं.

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